Lekhika Ranchi

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प्रतिज्ञा--मुंशी प्रेमचंद जी


प्रतिज्ञा अध्याय 11

पूर्णा प्रातःकाल और दिनों से आध घंटा पहले उठी। उसने दबे पाँव सुमित्रा के कमरे में कदम रखा। वह देखना चाहती थी कि सुमित्रा सोती है या जागती। शायद वह उसकी सूरत देख कर निश्चय करना चाहती थी कि उसे रात की घटना की कुछ खबर है अथवा नहीं। सुमित्रा चारपाई पर पड़ी कुछ सोच रही थी। पूर्णा को देख कर वह मुस्करा पड़ी। मुस्कराने की क्या बात थी, यह तो वह जाने, पर पूर्णा का कलेजा सन्न-से हो गया। चेहरे का रंग उड़ गया। भगवान, कहीं इसने देख तो नहीं लिया?
प्रश्न बिल्कुल साधारण था, किंतु पूर्णा को ऐसा जान पड़ा कि यह उस मुख्य विषय की भूमिका है। इतने सबेरे जाग जाना ऐसा लांछन था, जिसे स्वीकार करने में किसी भयंकर बाधा की शंका हुई। बोली - 'क्या बहुत सबेरा है? रोज ही की बेला तो है।'
पूर्णा का कलेजा धक-धक करने लगा। यह दूसरा और पहले से भी बड़ा लांछन था। इसे वह कैसे स्वीकार कर सकती थी? बोली - 'नहीं बहन, तुम्हें भ्रम हो रहा है। रात बहुत सोई। एक ही नींद में भोर हो गया। बहुत सो जाने से भी आँखें लाल हो जाती हैं।'
पूर्णा ने जोर दे कर कहा - 'वाह! इतनी बात तुम्हें मालूम नहीं। तुम्हें अलबत्ता नींद नहीं आई। क्या सारी रात जागती रहीं?'
पूर्णा - 'तुम तो व्यर्थ का मान किए बैठी हो बहन! एक बार चली क्यों नहीं जाती?'
यह कहते-कहते उसे रात का अपमान याद आ गया। वह घंटों द्वार पर खड़ी थी। वह जागते थे - अवश्य जागते थे, फिर भी किवाड़ न खोले। त्योरियाँ चढ़ा कर बोली - 'फिर क्यों मनाने जाऊँ? मैं किसी का कुछ नहीं जानती। चाहे एक खर्च किया, चाहे सौ, मेरे बाप ने दिए और अब भी देते जाते हैं। इनके घर में पड़ी हूँ, इतना गुनाह अलबत्ता किया है। आखिर पुरुष अपनी स्त्री पर क्यों इतना रोब जमाता है? बहन, कुछ तुम्हारी समझ में आता है?'
सुमित्रा - 'रक्षा की है तो अपने स्वार्थ से, कुछ इसलिए नहीं कि स्त्रियों के प्रति उनके भाव बड़े उदार हैं। अपनी जायदाद के लिए संतान की जरूरत न होती, तो कोई स्त्री की बात भी न पूछता। जो स्त्रियाँ बाँझ रह जाती हैं, उनकी कितनी दुर्दशा होती है रोज ही देखती हो। हाँ, लंपटों की बात छोड़ो, जो वेश्याओं पर प्राण देते हैं।'
सुमित्रा - 'वह निकम्मे पुरुष होंगे।'
पूर्णा - 'यह तो संसार की प्रथा ही है, बहन। मर्द स्त्री से बल में, बुद्धि में, पौरुष में अक्सर बढ़ कर होता है, इसीलिए उसकी हुकूमत है। जहाँ पुरुष के बदले स्त्री में यह गुण हैं, वहाँ स्त्रियों ही की चलती है। मर्द कमा कर खिलाता है, क्यों रोब जमाने से भी जाए।'
पूर्णा - 'लेकिन प्रश्न तो रक्षा का है। उनकी रक्षा कौन करेगा?'
पूर्णा - 'लंपटों के मारे उनका रहना कठिन हो जाएगा।'
पूर्णा ने गंभीर भाव से कहा - 'समय आएगा, तो वह भी हो जाएगा, बहन अभी तो स्त्री की रक्षा मर्द ही करता है।'
पूर्णा - 'ये सारी बातें तभी तक हैं, जब तक पति-देव रूठे हुए हैं। अभी आ कर गले लगा लें, तो तुम पैर चूमने लगोगी।'
इतने में कहार ने आ कर कहा - 'बहू जी, बाबू जी ने रेशमी अचकन माँगी है।'
कहार ने हाथ जोड़ कर कहा - 'सरकार, निकाल के दे दें, नाहीं हमार कुंदी होय लगी, चमड़ी उधेड़ ले हैं।'
कहार चला गया, तो पूर्णा ने कहा - 'बहन, क्यों रार बढ़ाती हो। लाओ मुझे कुंजी दे दो, मैं निकाल कर दे दूँ। उनका क्रोध जानती हो?'
कहार ने लौट कर कहा - 'सरकार कहते हैं कि अचकन लोहे वाली संदूक में धरी है।'
कहार - 'इ तो हम नहीं कहा सरकार! आप दूनों परानी छिन भर माँ एक्के होइ हैं, बीच में हमारा कुटम्मस होइ जाई।'
कहार मुँहलगा था। बोला - 'सरकार का जितना मारै का होय मार लें, मुदा बाबूजी से न पिटावें। अस घूंसा मारत हैं सरकार कि कोस-भर लै धमाका सुनात है।'
कहार - 'अरे सरकार, जो ई होत त का पूछै का रहा। मेहरिया अस गुनन की पूरी मिली है कि बात पीछू करत है, झाड़ू पहले चलावत है। जो सरकार, सुन-भर पावे कि कौनो दुसरी मेहरिया से हँसत रहा, तो खड़े लील जाए, सरकार, खड़ै लील जाए! थर-थर काँपित है, बहूजी से तौर इतना नहीं डेराइत है।'
कहार - 'जाइत है सरकार, आज भले का मुँह नहीं देखा जान परत है।'
सुमित्रा ने उसका आँचल पकड़ लिया - 'भागती कहाँ हो? जरा तमाशा देखो! क्या शेर हैं जो खा जाएँगे।'
सुमित्रा - 'कुवचन कह बैठेंगे, तो कुवचन सुनेंगे।'
सुमित्रा - हाथ क्या चला देंगे, कोई हँसी है? फिर सूरत न देखूँगी।
कमलाप्रसाद ने कमरे में कदम रखते ही कठोर स्वर में कहा - 'बैठी गप्पें लड़ा रही हो। जरा-सी अचकन माँग भेजी, तो उठते न बना। बाप से कहा होता, किसी करोड़पति सेठ के घर ब्याहते। यहाँ का हाल तो जानते थे।'
कमलाप्रसाद - 'तुम तो बड़ी समझदार थीं, तुम्हीं ने पता लगा लिया होता।'
कमलाप्रसाद - 'नहीं झगड़ा करना चाहता हूँ।'
कमलाप्रसाद - 'मेरी अचकन निकालती हो या नहीं?'
कमलाप्रसाद - 'मैं तो रोब से ही कहता हूँ।'
कमलाप्रसाद - 'तुम्हें निकालना पड़ेगा।'
कमलाप्रसाद - 'अनर्थ हो जाएगा सुमित्रा, अनर्थ हो जाएगा। कहे देता हूँ।'
कमलाप्रसाद - 'तुम अपने घर चली जाओ।'
कमलाप्रसाद - 'लखपती बाप का घर तो है।'
सुमित्रा ने ऐंठ कर कहा - 'बहन, मुँह देखे की सनद नहीं। काहे के यह बड़े समझदार बन गए और मैं बेसमझ हो गई? इसी मूँछ से। जो आदमी मुझ जैसी भोली-भाली स्त्री को आज तक अपनी मुट्ठी में न कर सका, वह समझदार नहीं, मूर्ख भी नहीं, बैल है। आखिर मैं क्यों इनकी धौंस सहूँ। जो दस बातें प्यार की करे, उसकी एक धौंस भी सह ली जाती। जिसकी तलवार सदा म्यान से बाहर रहती हो, उसकी कोई कहाँ तक सहे?'
सुमित्रा - 'मेरी बला रोए। हाँ, तुम रोओगे।'
सुमित्रा तिलमिला उठी। इस चोट का वह इतना ही कठोर उत्तर न दे सकती थी। वह यह कह न सकती थी कि मैं भी हजार शादियाँ कर सकती हूँ। तिरस्कार से भरे हुए स्वर में बोली - 'जो पुरुष एक को न रख सका, वह सौ को क्या रखेगा। हाँ, चकला बसाए तो दूसरी बात है।'

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